नौमुखी रुद्राक्ष 9 mukhi rudraksha
नव-दुर्गा की शक्तियों का केंद्र, यह दाना (रुद्राक्ष) बहुत अधिक प्रभावशाली होता है। दुर्गाजी के प्रत्येक अवतार (नौ अवतारों) की शक्ति इसमें
समाहित रहती है। वैसे प्रायः सभी रुद्राक्ष शिव-शक्ति के प्रतीक हैं, किन्तु नौमुखी दाना विशेष रूप से देवी उपासकों के लिए विशेष हितकर होता है। यह बहुत कठिनाई से मिलता है।
9 mukhi rudraksha यदि कहीं से ऐसा दाना मिल जाए, तो इसे दुर्गाजी की परम कृपा ही समझना हिए। शत्र, अग्नि, हिंसक पशु, प्रेतबाधा, दरिद्रता, भय-भ्रम आदि कष्टों के निवारण में यह दाना परम प्रभावी होता है।
नववक्त्रो भैरवस्तु धारयेद्वामबाहुके,
भुक्तिमुक्ति प्रदः प्रोक्तो मम तुल्यबलो भवेत्।
भ्रूणहत्यासहस्त्राणि ब्रह्महत्या शतानि च,
सघः प्रलयमायांति नवक्त्रस्य धारणात्।।
नौमुखी वाले रुद्राक्ष का नाम भैरव है। इसे बायीं भुजा में धारण करना चाहिए। इसे धारण करने वालों को भुक्ति-मुक्ति की प्राप्ति होती है और उसका बल मेरे तुल्य हो जाता है। हजारों भ्रूण (गर्भहत्या) और सैकड़ों ब्रह्महत्या नौमुखी रुद्राक्ष के धारण करने से शीघ्र ही नाश हो जाती है।
नोट-नौ मुख वाले रुद्राक्ष 9 mukhi rudraksha को भैरव तथा कपिलमुनि का प्रतीक कहा गया है, जिसकी अधिष्ठात्री नौ रूप धारण करने वाली महेश्वरी दुर्गा देवी हैं। बाएं हाथ में इसके धारण करने से मनुष्य शिवरूप सर्वेश्वर हो जाता है, इसे निम्न मंत्र से धारण करना चाहिए
1.8 मुखी रुद्राक्ष को धारण करने की विधि एवं लाभ
2.7 मुखी रुद्राक्ष को धारण करने की विधि एवं लाभ
3.छहमुखी रुद्राक्ष धारण करने की विधि संस्कृत श्लोकों, मन्त्रों द्वारा
“ओम् ह्रीं हुं नमः”
नवमुखी रुद्राक्ष के धारण करने की विधि
ॐ ह्रीं वरं लँ। इति मंत्रः।अस्य श्रीभैरवमन्त्रस्य नारदऋषि गायत्री छन्द: भैरवो देवता वें बीजं ह्रीं शक्तिः । अभीष्टसिद्धयर्थे रुद्राक्षधारणार्थे जपे विनियोगः। नारदऋषये: नमः शिरसि, गायत्रीछन्दसे – नमो मुखे, भैरवदेवतायै नमो हृदि बीजाय नमो गुहो, ह्रीं शक्तये नमः पादयोः।। (अथ
करन्यासः) ॐ ॐ अंगुष्ठाभ्यां नमः ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा, ॐ बँ, मध्यमाभ्यां वषट्, – ॐ लँ करतलकरपृष्ठाभ्यां फट् (अथाङ्गन्यासः) ॐ ॐ हृदयाय नमः, ॐ ह्रीं शिरसे – स्वाहा, ॐ व शिखायै वषट् ॐ यँ कवचाय हुं ॐ रं नेत्रत्राय वौषट्, ॐ ये अनामिकाभ्यां
हूँ, ॐ ₹ कनिष्ठकाभ्यां वौषट्, ॐ लँ अस्त्राय फट्।। (अथ ध्यानम्) कपालहस्तं – भुजगोपवीतं कृष्णच्छविदण्डधरं त्रिनेत्रम् ! अचिन्त्यामाद्यं अधुपानमत्तं हदि स्मरेभैरवमिष्टद नृणाम्।
इति नव मुखो.।
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